पहलगाम की आतंकी घटना: विरोध, उम्मीद और सवाल
ज़ुबेर कुरैशी
पहलगाम की वादियों में हुई हालिया आतंकी घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। बेगुनाहों पर बरसी गोलियों की यह बरबादी ना केवल कश्मीर की खूबसूरती को दागदार करती है, बल्कि इंसानियत के सिर को भी शर्म से झुका देती है। हम इस बर्बरता की कठोरतम शब्दों में निंदा करते हैं। आतंक का कोई धर्म नहीं होता, न कोई जात-पात, और ना ही कोई इंसानी जुड़ाव।
लेकिन इस त्रासदी के बीच एक उम्मीद की किरण भी नजर आई — कश्मीर के आम लोगों की इंसानियत।
घटना के वक्त जिस तरह स्थानीय कश्मीरियों ने घायल यात्रियों को बचाने, उन्हें अस्पताल पहुँचाने, और सुरक्षा बलों के साथ मिलकर मदद पहुँचाने का काम किया, वह बताता है कि घाटी की आम जनता आतंकियों के खिलाफ है, और शांति की पक्षधर है। कश्मीर के इन अनगिनत गुमनाम नायकों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि आतंकवादी कश्मीर का प्रतिनिधित्व नहीं करते —और ना आम कश्मीरी करता है, वो शांति, मोहब्बत और भाईचारे में विश्वास रखता है।
लेकिन सवाल उठता है: जब भी देश के किसी कोने में ऐसी कोई आतंकी घटना होती है, तो पूरे हिंदुस्तान में मुसलमानों को शक की निगाह से देखा जाने लगता है।
हर मुस्लिम युवा पर संदेह करने की आदत, हर मुस्लिम चेहरे को आतंक से जोड़ने की मानसिकता, हमें भीतर से कमजोर करती है।
कहीं किराए पर घर देने से इंकार, तो कहीं रोजगार के मौके छीनना — यह सब उस बुनियादी भारतीय सोच के खिलाफ है, जिसमें ‘सबका साथ, सबका विकास’ का सपना बुना गया था।
वास्तविकता यह है कि: आतंकवाद का सबसे ज्यादा शिकार खुद मुसलमान भी हुए हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में मुसलमानों के खिलाफ घटीं घटनाओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है।
पहलू खान, अखलाक, जुनैद, तबरेज अंसारी जैसे नाम सिर्फ व्यक्तियों के नहीं, बल्कि उन जख्मों के प्रतीक हैं जो मजहब के नाम पर इंसानियत को चीरते रहे।
सामूहिक मॉब लिंचिंग की घटनाओं से लेकर फर्जी एनकाउंटरों तक — लगभग 140 से अधिक दस्तावेज़ी मामलों में मुसलमान सिर्फ अपने नाम, अपनी पहचान की वजह से हिंसा का शिकार हुए हैं।
यह देश के लोकतंत्र और संविधान दोनों के लिए खतरे की घंटी है। अगर हम इस प्रवृत्ति पर अब भी लगाम नहीं लगाएंगे, तो यह नफरत धीरे-धीरे हमारी राष्ट्रीय एकता को खोखला कर देगी।
पहलगाम के लोकल कश्मीरियों ने दिखाया है कि: नफरत का जवाब मोहब्बत से दिया जा सकता है, आतंक का जवाब मदद से दिया जा सकता है।
अब जरूरत है कि पूरे हिंदुस्तान में भी वही इंसानियत की भावना फूके — ताकि हर भारतीय चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या भाषा का हो, अपने देश में खुद को महफूज़ महसूस कर सके।
आज वक्त है सवाल पूछने का:
हम कब तक किसी मजहब को शक के तराजू पर तौलते रहेंगे?
कब तक बेगुनाहों की जान जाती रहेगी, और हम चुप्पी साधे रहेंगे?
और सबसे बड़ा सवाल — क्या हम नफरत के जहर को मोहब्बत से धोने के लिए तैयार हैं?