राहुल की यात्रा कितनी सार्थक, कितनी निरर्थक...

(मनीष गुप्ता)

ऐतिहासिक लेकिन वर्तमान में जर्जर कांग्रेस के पूर्व तथा कदाचित भावी अध्यक्ष राहुल ने कन्याकुमारी से कश्मीर की यात्रा पर हैं। उनकी इस यात्रा को भारत जोड़ो यात्रा नाम दिया गया है। भारत सहित समग्र विश्व में यात्राओं का व्यापक महत्व रहा है। ऐसे यात्रियों ने कई देशों, संस्कृतियों की खोज की है। यदि यात्राएं न होतीं तो आज दुनिया अपने विराट स्वरूप से ठीक वैसे ही अनभिज्ञ रहती जैसे कांग्रेस अपने मूल चरित्र से या तो अनजान है अथवा चरित्र बदल गया है। यात्राएं दो तरह की होती हैं। एक स्वयं की खोज और दूसरी  सार्वभौमिक खोज के लिए। राहुल गांधी के दिवंगत पिता राजीव गांधी के नाना जवाहरलाल नेहरू की एक किताब बहुत चर्चित रही है। डिस्कवरी ऑफ इंडिया इसे हिंदी में भारत एक खोज कहें तो नेहरू ने भारत में एक शाश्वत खोज की। वह यह कि इस देश में पेरिस से धुले कपड़े पहनने वाले के नाम पर भविष्य की राजनीति नहीं चल सकती। यहां लंगोटी धारण करने वाला ही आस्था और विश्वास का ऐसा केंद्र हो सकता है, जिसके नाम पर सुदीर्घ काल तक राजनीति की जा सकती है। नेहरू के समग्र चिंतन का निहितार्थ उनका विरासतवाद कहा जाय तो यह विवादास्पद हो सकता है किंतु तथ्यहीन और सत्यहीन कतई नहीं। क्या वजह है कि जवाहरनंदिनी इंदिरा के विवाहसूत्र में बंधने के बाद गांधी ने उन्हें वैवाहिक भेंट में अपना नाम दे दिया? गांधी के वंशज मानें न मानें लेकिन जानते तो हैं कि नेहरू की वंशबेल गांधी का नाम ओढ़कर पीढ़ी दर पीढ़ी उस कांग्रेस की अधिपति बनी हुई है और संभवतः कांग्रेस के अस्तित्व तक उसी का अधिपत्य बरकरार रह सकता है, जिस कांग्रेस का लक्ष्य आजादी के साथ पूरा हो जाने पर गांधी उसके समापन का विचार रखते थे। क्या गांधी के विचार का सम्मान हुआ? नहीं। गांधी के मार्गदर्शन में चलने वाली कांग्रेस एक आंदोलन थी। उद्देश्य पूरा हो जाने पर आंदोलन का क्या औचित्य है? आंदोलन समाप्त हो जाता है परंतु गांधी ऐसा नहीं कर सके। उन्हें ऐसा करने नहीं दिया गया। गांधी के विचारों की जो जरूरत आजादी के पहले थी, वह गांधी के नाम की राजनीतिक जरूरत में बदल गई। कांग्रेस में गांधीवादी विचारधारा का तो पता नहीं मगर गांधीवाद जिंदा है। इंदिरा के बाद राजीव, उनके बाद सोनिया, उनके बाद राहुल, फिर सोनिया और शायद फिर राहुल! साथ में प्रियंका तो हैं ही। बहुत संभव है कि कांग्रेस दो इंजन की गाड़ी के तौर पर नजर आए। बात राहुल की भारत जोड़ो यात्रा की है तो जैसे नेहरू ने भारत की राजनीतिक खोज में परिवारवाद के अमरत्व की खोज की थी, वैसे ही अब राहुल भारत जोड़ो यात्रा में अपने भविष्य की खोज कर रहे हैं। यह यात्रा भारत या कांग्रेस जोड़ने के लिए नहीं है। भारत तो जुड़ा हुआ है। भारत से जुड़ने की जरूरत राहुल को है। कांग्रेस को है। क्योंकि राहुल की कांग्रेस अब केवल दो राज्यों में सिमट गई है। उनकी यात्रा कांग्रेस जोड़ने के लिए भी प्रतीत नहीं हो रही। गुजरात में चुनाव सिर पर हैं और राहुल केरल घूम रहे हैं। वहां के वामपंथी कह रहे हैं कि यहां क्या कर रहे हैं, गुजरात जाएं। राहुल वहां व्यस्त और यहां गोवा में कांग्रेस अस्त! तब भी राहुल की मंडली का उत्साह सातवें आसमान पर है। लद्दाख के एक निकायी उपचुनाव में कांग्रेस जीत गई तो जयराम रमेश जैसे नेता गुलाम नबी आजाद के साथ साथ मोदी और शाह पर तंज कसने लगे। जिस कश्मीर में कांग्रेस का कद्दावर नेता आजाद हो गया, वहां राहुल की यात्रा का जम्हूरी इस्तकबाल क्या अशोक गहलोत, भूपेश बघेल, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे नेता करेंगे या महबूबा मुफ्ती और फारुख अब्दुल्ला? राहुल के शुभचिंतक मान रहे हैं कि राहुल की यात्रा से 7 से 11 फीसदी मतों का इजाफा हो सकता है। इस यात्रा के बाद एक साथ दो यात्राएं निकाली जा सकती हैं। एक छोर से राहुल और दूसरे छोर से प्रियंका। सवाल यह है कि क्या इन गांधियों की यात्रा गांधी की यात्रा जैसी हो सकती है? राहुल की यात्रा के नाम पर चंदा वसूली सामने आ रही है। राहुल विवादित चेहरों से ईश्वर के प्रति अपनी जिज्ञासा शांत कर रहे हैं। उन्हें परमज्ञान प्राप्त हुआ है कि वास्तविक भगवान केवल ईसा मसीह हैं। अब ऐसी यात्रा को भारत जोड़ो कैसे माना जाए? क्या भारत में सब यह मान सकते हैं कि वास्तविक भगवान केवल वही है, जिसे किसी पादरी ने राहुल को अवगत कराया है? राहुल की यात्रा के ऐसे प्रसंग कांग्रेस के लिए दिक्कत ही उत्पन्न कर सकते हैं। कांग्रेस का भविष्य जो भी हो लेकिन भविष्य में कांग्रेस की बागडोर फिर राहुल के हाथ में होगी। प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष सही। तीन राज्यों की कांग्रेस कमेटियों ने राहुल की ताजपोशी का एजेंडा पेश कर दिया है। आगे भी यह सिलसिला चल सकता है। वैसे भी राहुल इशारा कर चुके हैं कि कोई भ्रम नहीं है। समय आने पर फैसला ले लेंगे। लगता है कि यह यात्रा राहुल को नए कलेवर में पेश करने की पटकथा है। यात्रा सार्थक भी है और निरर्थक भी। यह स्वविवेक पर निर्भर है कि इसे किस नजरिए से देखा जाये।