हेमंत खंडेलवाल: प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी या सत्ता-संगठन का संतुलन?"

मध्य प्रदेश बीजेपी में हालिया नियुक्ति ने एक बार फिर ये साबित कर दिया है कि राजनीति में चेहरों से ज़्यादा समीकरण मायने रखते हैं। हेमंत खंडेलवाल का प्रदेश अध्यक्ष बनना, न तो चौंकाने वाला रहा, न ही अप्रत्याशित—लेकिन इसके पीछे की ‘सहमति’ ने ज़रूर सभी को सोचने पर मजबूर कर दिया है।
जिस कुर्सी के लिए पहले जोड़-तोड़, लॉबिंग और ध्रुवीकरण की लंबी लड़ाइयाँ हुआ करती थीं—वह इस बार बिना किसी विरोध, बिना किसी खींचतान के सौंप दी गई। तो क्या ये केवल एक नाम की नियुक्ति है? या फिर यह ‘तीन ध्रुवों’—दिल्ली, संघ और प्रदेश नेतृत्व के बीच नए संतुलन की शुरुआत?
हेमंत खंडेलवाल का नाम, भले ही सादगी, संगठन और पुराने कार्यकर्ता मूल्यों से जुड़ा रहा हो, लेकिन यह भी सच है कि उनका चयन उस समय हुआ है, जब पार्टी कार्यकर्ताओं में थकान, नेतृत्व को लेकर भ्रम और गुटबाज़ी से उपजी सुस्ती छाई हुई है। ऐसे में खंडेलवाल सत्ता और संगठन के बीच वह पुल हैं, जिसकी दोनों किनारों को जरूरत थी।
संघ की वापसी या सत्ता की रणनीति?
खंडेलवाल की नियुक्ति में संघ की सहमति और मोहन यादव-शिवराज सिंह चौहान की एकमत स्वीकृति—अपने आप में एक 'अपवाद' है। लेकिन यही अपवाद यह भी दर्शाता है कि पार्टी अब शायद अपने पुराने कार्यकर्ता-केंद्रित मॉडल की ओर लौटना चाहती है। या यूँ कहें, विचारधारा को चेहरों से बचाने की कोशिश की जा रही है।
बीजेपी की राजनीति में जब भी संगठन की उपेक्षा बढ़ती है, तब संघ हस्तक्षेप करता है। ऐसे में खंडेलवाल, संघ के उसी संतुलन को पुनर्स्थापित करने की एक रणनीतिक कोशिश भी हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या वे संगठन को फिर से ज़िंदा कर पाएंगे? क्या वे निष्क्रिय ज़िलों में राजनीतिक ऑक्सीजन पहुँचा पाएंगे?
विरासत, विनम्रता और व्यावहारिकता का मेल
हेमंत खंडेलवाल को उनकी विरासत ने पार्टी में स्थान दिलाया, लेकिन उनकी अपनी विनम्र छवि, ज़मीनी पकड़ और सादा जीवन शैली ने उन्हें स्वीकार्यता दी। कार्यकर्ताओं में 'मुन्नी भैया' के नाम से जाने जाने वाले खंडेलवाल अब ‘भाईसाहब’ से ‘अध्यक्ष साहब’ बन चुके हैं। सवाल ये है कि क्या उनका यही अपनापन और सादगी, सत्ता की चमक-दमक के बीच टिका रह पाएगा?
सामाजिक संतुलन पर प्रश्नचिन्ह
सबसे बड़ा सवाल जो इस नियुक्ति के साथ उठा है—वह है आदिवासी और महिला प्रतिनिधित्व की उपेक्षा। क्या यह पार्टी की रणनीति है कि वह सामाजिक समीकरणों को चुनावी समय के लिए बचा रही है? या फिर यह उस ‘कोर वोट बैंक’ को बचाने की हड़बड़ी है, जो लगातार छिटक रहा है?
खंडेलवाल की नियुक्ति, जहाँ एक ओर संगठन की वापसी की उम्मीदें जगाती है, वहीं यह सत्ता के भीतर चल रही खींचतान की 'मैनेजमेंट एक्सरसाइज़' भी लगती है।
2028 की तैयारी या 2023 की मरम्मत?
ये भी देखने लायक होगा कि क्या खंडेलवाल महज़ संगठन के ‘केयरटेकर’ बनकर रह जाएंगे या वे 2028 तक एक मजबूत सांगठनिक रोडमैप बनाएंगे? मौजूदा हालात में बीजेपी को न सिर्फ अपनी सत्ता को बनाए रखना है, बल्कि एक बार फिर कार्यकर्ताओं को जीवंत करना है।
अंतिम बात: असली परीक्षा बाकी है
हेमंत खंडेलवाल की असली परीक्षा अब शुरू होगी—जहाँ उन्हें सत्ता के दबाव, संगठन की सुस्ती, सामाजिक समीकरण और परसेप्शन की राजनीति—इन चारों मोर्चों पर खुद को साबित करना होगा। बीजेपी में अध्यक्ष महज़ प्रतीक नहीं होता, वह संदेश भी होता है। अब देखना होगा कि खंडेलवाल संगठन का संदेश बनते हैं या सत्ता की ज़रूरत भर साबित होते हैं।